एक बार उन्होंने ‘काका’ नाम का किरदार अदा किया। वो किरदार इतना मशहूर हुए कि लोग प्रभू को ‘काका’ कहकर पुकारने लगे। और यहीं से उनका नाम काका हाथरसी (Kaka Hathrasi)पड़ा।
तारीख़ थी 18 सितंबर साल 1995। सोमवार की उस दोपहर उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले के एक शमशान घाट में ऊंट गाड़ी पर रखकर एक जनाज़ा लाया गया। पूरे सम्मान के साथ चिता को आग दी गयी। जाने वाली की आखिरी यादों से झिलमिलाती रिश्तेदारों और दोस्तों की आंखे नम थी। लेकिन तभी उसी शमशान में ठहाके और कहकहे गूंजने लगे। क्योंकि उसी शमशान में, उसी जाने वाली की याद में एक ‘हास्य कवि सम्मेलन’ आयोजित किया गया था। जिसमें शामिल थे मशहूर कवि और लेखक अशोक चक्रधर और लाउडस्पीकर पर कवि सम्मेलन का संचालन कर रहे थे ब्रज भाषा के प्रसिद्ध कवि सुरेश चतुर्वेदी। ये कवि सम्मेलन मरने वाले की वसीयत में लिखी आख़िरी ख्वाहिश के तौर पर आयोजित किया गया था। वसीयत में लिखा था – मेरी मौत पर न रोएगा कोई, ऊंट गाड़ी पर निकलेगी शव यात्रा, ठहाके लगाते चलेंगे सब, शमशान पर होगा कवि सम्मेलन, जब तक मेरी चिता जलेगी, तबतक काव्यपाठ करेंगे कवि। ये वसीयत थी हिंदी साहित्य में हास्य कविता को उसके उरूज तक पहुंचाने वाले पद्मश्री काका हाथरसी (Kaka Hathrasi)की।
जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र
फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र
यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी
बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी
कहँ ‘काका’ कविराय, लार म्हौंड़े सों टपके
कर लड़ुअन की याद, जीभ स्याँपन सी लपके
मारग में जब है गई अपनी मोटर फ़ेल
दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल
तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का
दो मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का
कहँ ‘काका’ कविराय, पटक दूल्हा ने खाई
पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई
नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ
मुर्गा बनि बैठे हमहुँ, मिली न कोऊ सीट
मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता
फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता
कहँ ‘काका’ कविराय, परिस्थिति विकट हमारी
पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे ‘टिकस’ हमारी
फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय
एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुँ खोय
एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी
मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी
कहँ ‘काका’, समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया
छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया
काका हाथरसी (Kaka Hathrasi) की पैदाइश और उनके निधन की एक ही तारीख है। 18 सिंतबर 1906 को हाथरस में शिवलाल गर्ग साहब के घर पर एक बेटा पैदा हुआ। अपनी पैदाइश के बारे में काका हाथरसी ने लिखा है। दिन अट्ठारह सितंबर, अगरवाल परिवार, 1906 में लिया काका ने अवतार। तो जिस साल यानि 1906 में काका की पैदाइश हुई उसी साल में हिंदुस्तान में प्लेग की महामारी फैली हुई थी। उसी बीमारी से कुछ दिन बाद शिवलाल गर्ग साहब चल बसे। उनकी पत्नी बर्फ़ी देवी अपने बच्चे को लेकर ‘इगलास’ जो कि अलीगढ़ ज़िले की तहसील है, वहां अपने मायके चली आईं। और अपने बच्चे का नाम रखा – प्रभू लाल गर्ग।
प्रभू की पढ़ाई उनके मामा के सहयोग से पूरी हुई। जवां हुए तो वो हाथरस वापस लौटे और दुकान पर पेंट के काम के साथ पढ़ाई करने लगे। साहित्य में, कविता में शुरु से रूचि थी। और लड़कपन के दिनों में वो नाटकों में भी भाग लेते थे। शुरुआती दिनों में वो नाटक मंचन के दौरान स्टेज के पीछे लाउडस्पीकर बांधने का काम करते थे, जिसके एवज में उन्हें कोई छोटा-मोटा रोल दे दिया जाता था। एक बार उन्होंने ‘काका’ नाम का किरदार अदा किया। वो किरदार इतना मशहूर हुए कि लोग प्रभू को ‘काका’ कहकर पुकारने लगे। और यहीं से उनका नाम काका हाथरसी (Kaka Hathrasi) पड़ा। 1946 में उनकी पहली किताब ‘काका की कचहरी’ छपी, हालांकि इस किताब में उनके अलावा भी तमाम हास्य कवियों की रचनाएं थी जो बहुत मशहूर हुई और फिर उनका साहित्यिक सफ़र शुरु हो गया। बेहद मुश्किल आर्थिक हालात में पले बढ़े काका ने ना सिर्फ देश-विदेश में अपना नाम रौशन किया बल्कि हाथरस को भी ख़ास पहचान दिलाई।
फादर ने बनवा दिये तीन कोट, छै पैंट
लल्लू मेरा बन गया कालिज स्टूडैंट।
कालिज स्टूडैंट, हुए हॉस्टल में भरती
दिन भर बिस्कुट चरें, शाम को खायें इमरती।
कहें काका कविराय, बुद्धि पर डाली चादर
मौज कर रहे पुत्र, हडि्डयां घिसते फादर।
पढ़ना-लिखना व्यर्थ हैं, दिन भर खेलो खेल
होते रहु दो साल तक फस्र्ट इयर में फेल।
फस्र्ट इयर में फेल, जेब में कंघा डाला
साइकिल ले चल दिए, लगा कमरे का ताला।
कहें काका कविराय, गेटकीपर से लड़कर
मुफ़्त सिनेमा देख, कोच पर बैठ अकड़कर।
प्रोफ़ेसर या प्रिंसिपल बोलें जब प्रतिकूल
लाठी लेकर तोड़ दो मेज़ और स्टूल।
मेज़ और स्टूल, चलाओ ऐसी हाकी
शीशा और किवाड़ बचे नहिं एकउ बाकी।
कहें ‘काका कवि’ राय, भयंकर तुमको देता
बन सकते हो इसी तरह ‘बिगड़े दिल नेता।’
काका (Kaka Hathrasi) ने हास्य कविता को जो मकाम दिया, हास्य साहित्य उसके लिए काका का हमेशा शुक्रगुज़ार रहेगा। काका ने मुश्किल से मुश्किल और कड़वी से कड़वी बात को आसानी से कहने का जो अंदाज़ सिखाया वो हमेशा याद किया जाएगा। काका की कविताएं इंसान को इंसान होना सिखाती हैं। सच को सच की तरह कहना सिखाती हैं और सिखाती हैं खुद अपने मन की तहों में झांकना। जब जब हिंदी में हास्य का ज़िक्र होगा, काका हाथरसी को हमेशा याद किया जाएगा।